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ट्रंप ने किस तरह का समझौता कराया, जिसे इस देश के विदेश मंत्री नहीं मान रहे 'पीस डील'

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image Getty Images डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक कई समझौतों को कराने का दावा किया है

मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर में हुआ यह समारोह शुरुआत से ही अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा.

जैसा सभी को पहले से अंदाज़ा था, पूरा माहौल ट्रंप की मौजूदगी से प्रभावित रहा.

कंबोडिया और थाईलैंड के बीच समझौते पर हस्ताक्षर के इस मौके़ पर ट्रंप आयोजन के मुख्य आकर्षण बने रहे. उन्होंने सबसे लंबा भाषण दिया और सबसे बड़े दावे किए.

डोनाल्ड ट्रंप का कहना था, "यह दक्षिण पूर्व एशिया के लिए एक ऐतिहासिक दिन है, एक बहुत बड़ा क़दम है."

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ट्रंप ने उन दोनों प्रधानमंत्रियों को "ऐतिहासिक शख्सियतें" कहा जो समझौते पर हस्ताक्षर करने जा रहे थे और कुछ झिझकते हुए भी दिखाई दे रहे थे.

उन्होंने विस्तार से बताया कि जुलाई में स्कॉटलैंड स्थित अपने टर्नबेरी गोल्फ़ कोर्स पर रहते हुए वह कैसे थाई-कंबोडिया सीमा विवाद में शामिल हुए.

ट्रंप बोले, "और मैंने कहा कि यह गोल्फ़ खेलने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है... मैं बहुत मज़े कर सकता था, लेकिन यह ज़्यादा मज़ेदार है... देशों को और लोगों को बचाना."

आख़िर इस आयोजन का मक़सद क्या था? image MOHD RASFAN/POOL/AFP via Getty Images समझौते के दौरान ट्रंप के साथ कंबोडिया और थाईलैंड के प्रधानमंत्री

ट्रंप ने इस ख़ास समारोह की मांग इसलिए की थी ताकि वह इसे आसियान शिखर सम्मेलन में आने की शर्त बना सकें.

यह ऐसा आयोजन है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति कभी-कभी शामिल होते हैं, हमेशा नहीं. उन्होंने इस मंच का इस्तेमाल ख़ुद को एक "महान शांति-दूत" के रूप में पेश करने के लिए किया.

"आठ महीने में मेरी सरकार ने आठ युद्ध ख़त्म किए हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ."

उन्होंने कहा, "हम औसतन हर महीने एक युद्ध ख़त्म कर रहे हैं... मैं कह सकता हूं कि यह मेरा शौक नहीं है, क्योंकि यह बहुत गंभीर काम है, लेकिन यह कुछ ऐसा है जिसमें मैं अच्छा हूं और जिसे मैं करना पसंद करता हूं."

लेकिन ट्रंप ने जिस "कुआलालंपुर पीस अकोर्ड" नाम से इस समझौते को पेश किया है, वह असल में कितना मायने रखता है?

याद रखिए, दोनों देशों ने जुलाई में ही एक युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.

वह समझौता भी ट्रंप के दबाव से हुआ था या कम से कम उसकी प्रक्रिया तेज़ हुई थी.

लेकिन अगर इस नए समझौते के ब्योरे को देखा जाए, तो यह कोई बड़ा क़दम नहीं लगता.

दोनों देशों ने विवादित सीमा से अपने भारी हथियार हटाने और वहां निगरानी के लिए एक अस्थायी टीम बनाने पर सहमति जताई है.

उन्होंने बारूदी सुरंगें साफ़ करने की नई प्रक्रिया तय की है और एक "जॉइंट टास्क फ़ोर्स" बनाने का फ़ैसला लिया है, जो फ़र्ज़ी कॉल सेंटरों के फैलने पर नज़र रखेगा.

जहां सीमा चिन्ह गायब हैं, वहां अस्थायी निशान लगाए जाएंगे.

image BBC अब भी है समझौते पर संदेह?

यह एक तरह की प्रगति है और थाई राजनयिकों ने कहा कि उन्हें लगता है कि ट्रंप की भागीदारी से ये समझौते लंबे समय तक टिक सकते हैं.

लेकिन सीमा से जुड़े ऐतिहासिक मतभेद अब भी सुलझे नहीं हैं और उनके दोबारा भड़कने का ख़तरा बना हुआ है.

समारोह के बाद थाईलैंड के विदेश मंत्री सिहासेक फुआंगकेतक्याव ने इसे शांति समझौता कहने से साफ़ इनकार किया.

उन्होंने इस समझौते पर अपने देश की ओर से घोषित किए गए आधिकारिक नाम को ही दोहराया, जो है, "थाईलैंड और कंबोडिया के प्रधानमंत्रियों की तरफ़ से कुआलालंपुर में हुई बैठक के परिणामों पर संयुक्त घोषणा."

यह नाम सुनने में लंबा ज़रूर है, लेकिन थाईलैंड इसे ही सही मानता है.

थाईलैंड के विदेश मंत्री ने कहा, "मैं इसे शांति की ओर बढ़ने का रास्ता कहूंगा." यह बयान ट्रंप के दावों से बहुत अलग था.

पत्रकार और 'द डिप्लोमैट' मैगज़ीन के दक्षिण पूर्व एशिया संपादक सेबस्टियन स्ट्रैंजियो ने लिखा, "यह इतना मामूली समझौता है कि उस पर अमेरिका के राष्ट्रपति की अध्यक्षता करना अजीब लगता है."

image MOHD RASFAN/POOL/AFP via Getty Images कंबोडिया इस समझौते को लेकर ज़्यादा उत्साहित दिखा, वहीं थाईलैंड ने सावधानी बरती है कंबोडिया ने दिखाया उत्साह

कंबोडिया इस समझौते को लेकर ज़्यादा उत्साहित दिखा. दरअसल, वह हमेशा से इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की कोशिश करता रहा है, यहां तक कि उसने इसे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुंचाया था. थाईलैंड इससे सहमत नहीं रहा है.

समारोह के दौरान कंबोडिया के प्रधानमंत्री हुन मनेट ने अमेरिकी राष्ट्रपति की जमकर तारीफ़ की. उन्होंने ट्रंप को याद दिलाया कि उनकी सरकार ने उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है.

थाईलैंड के प्रधानमंत्री अनुतिन चार्नविराकुल ने ज़्यादा सावधानी बरती. उन्हें अपने देश में बढ़ते राष्ट्रवादी दबाव का ध्यान रखना था ताकि उन पर कंबोडिया को ज़्यादा रियायत देने का आरोप न लगे. यह चिंता कंबोडिया की सत्तावादी सरकार को नहीं करनी पड़ती.

थाईलैंड का हमेशा से कहना रहा है कि यह विवाद दोनों देशों के बीच ही बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए, किसी बाहरी मध्यस्थता से नहीं.

थाई सरकार ने कहा कि वह ट्रंप के समर्थन की सराहना करती है और अमेरिका के साथ ही मलेशिया की भूमिका को केवल "सहायक" मानती है.

फिर भी, न तो दोनों देश और न ही आसियान समूह के बाकी सदस्य ट्रंप की इस विशेष समारोह की मांग को ठुकरा सकते थे.

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वजह क्या है?

दक्षिण पूर्व एशिया दुनिया का सबसे अधिक निर्यात पर निर्भर इलाक़ा है, जो चीन की तुलना में अमेरिकी बाज़ार पर कहीं ज़्यादा निर्भर है.

यह साल इस क्षेत्र के लिए मुश्किल भरा रहा है. ट्रंप की शुरुआती 48% तक की टैरिफ़ दरों ने इसे संकट में डाल दिया था. कई दौर की कठिन बातचीत के बाद ये दरें घटकर अब 19 से 20% के बीच आ गई हैं.

ट्रंप आसियान शिखर सम्मेलन में ज़्यादा समय नहीं रुकेंगे. कुछ द्विपक्षीय बैठकों और एक डिनर के बाद वह जापान जाएंगे और फिर एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) सम्मेलन में शामिल होंगे.

यह भी एक बहुपक्षीय मंच है, जो ट्रंप की सख़्त और लेन-देन वाली नीति से मेल नहीं खाता, लेकिन यहां वे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ रिश्ते सुधारने की उम्मीद कर रहे हैं.

फिर भी, आसियान देशों को उम्मीद है कि अमेरिकी राष्ट्रपति का सिर्फ़ 24 घंटे के लिए ही सही, कुआलालंपुर आना अमेरिका और इस क्षेत्र के रिश्तों में कुछ स्थिरता लाने में मदद करेगा.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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