सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के पूर्व सीएम एम. करुणानिधि की मूर्ति लगाने की राज्य सरकार की याचिका खारिज करते हुए सवाल किया कि आप सार्वजनिक धन का इस्तेमाल अपने नेताओं का गुणगान करने के लिए क्यों कर रहे हैं। यह सवाल असल में सभी राज्यों और राजनीतिक दलों के लिए है, और यह भी कि क्या किसी सार्वजनिक हस्ती की विरासत को केवल मूर्तियों के जरिये ही संजोया जा सकता है?
ट्रैफिक पर असर: तमिलनाडु सरकार ने तिरुनेलवेली जिले में मूर्ति लगाने की इजाजत मांगी थी। इससे पहले मद्रास हाई कोर्ट से याचिका खारिज हो चुकी थी और सुप्रीम कोर्ट ने उससे राहत नहीं दी। दोनों अदालतों में यह पॉइंट हाइलाइट हुआ कि सार्वजनिक स्थलों पर मूर्तियों के निर्माण से किस तरह ट्रैफिक बाधित होता है और आम लोगों को परेशानी उठानी पड़ती है।
सुप्रीम रोक: अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट 2013 के एक आदेश के जरिये पहले ही कह चुका है कि सार्वजनिक स्थलों, सड़कों वगैरह पर मूर्तियां या कोई अन्य निर्माण नहीं किया जा सकता है। तब केरल के तिरुवनंतपुरम में एक नैशनल हाईवे पर मूर्ति लगाने से रोकते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकार का हर कदम जनता के कल्याण के लिए होना चाहिए। इस आदेश के बावजूद बार-बार ऐसे केस अदालतों के सामने आ रहे हैं, जो वक्त की बर्बादी है।
पार्क का सुझाव: इस कड़ी में मद्रास हाई कोर्ट का सुझाव गौर करने लायक है। कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार नेताओं के नाम से पार्क बना सकती है। इससे युवाओं को अपने नेताओं के बारे में जानने और उनकी विचारधारा को समझने का ज्यादा बेहतर मौका मिलेगा। अभी जो मूर्तियां जगह-जगह लगी हैं, उन्हें भी ऐसे पार्क में शिफ्ट किया जा सकता है। हरियाली की कमी से जूझ रहे शहरों में ऐसे पार्क खुली जगह और ताजी हवा का केंद्र बन सकते हैं।
राजनीतिक मामला: भारत में सार्वजनिक हस्तियों, नेताओं की मूर्तियों का मामला विरासत से अधिक राजनीतिक होता है। मूर्तियों के जरिये खास तबकों और समुदायों को संदेश देने की कोशिश की जाती है। इसका इस्तेमाल प्राय: चुनावी फायदों के लिए किया जाता है। लेकिन सच तो यह है कि देश को मूर्तियों से ज्यादा सार्वजनिक सुविधाओं की जरूरत है। इसलिए टैक्सपेयर्स के पैसों का उपयोग किसी का महिमामंडन करने के बजाय सड़कों और पार्कों की हालत सुधारने में किया जाना चाहिए। इससे उन नेताओं के विचारों को फैलाने में ज्यादा मदद मिलेगी।
ट्रैफिक पर असर: तमिलनाडु सरकार ने तिरुनेलवेली जिले में मूर्ति लगाने की इजाजत मांगी थी। इससे पहले मद्रास हाई कोर्ट से याचिका खारिज हो चुकी थी और सुप्रीम कोर्ट ने उससे राहत नहीं दी। दोनों अदालतों में यह पॉइंट हाइलाइट हुआ कि सार्वजनिक स्थलों पर मूर्तियों के निर्माण से किस तरह ट्रैफिक बाधित होता है और आम लोगों को परेशानी उठानी पड़ती है।
सुप्रीम रोक: अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट 2013 के एक आदेश के जरिये पहले ही कह चुका है कि सार्वजनिक स्थलों, सड़कों वगैरह पर मूर्तियां या कोई अन्य निर्माण नहीं किया जा सकता है। तब केरल के तिरुवनंतपुरम में एक नैशनल हाईवे पर मूर्ति लगाने से रोकते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकार का हर कदम जनता के कल्याण के लिए होना चाहिए। इस आदेश के बावजूद बार-बार ऐसे केस अदालतों के सामने आ रहे हैं, जो वक्त की बर्बादी है।
पार्क का सुझाव: इस कड़ी में मद्रास हाई कोर्ट का सुझाव गौर करने लायक है। कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार नेताओं के नाम से पार्क बना सकती है। इससे युवाओं को अपने नेताओं के बारे में जानने और उनकी विचारधारा को समझने का ज्यादा बेहतर मौका मिलेगा। अभी जो मूर्तियां जगह-जगह लगी हैं, उन्हें भी ऐसे पार्क में शिफ्ट किया जा सकता है। हरियाली की कमी से जूझ रहे शहरों में ऐसे पार्क खुली जगह और ताजी हवा का केंद्र बन सकते हैं।
राजनीतिक मामला: भारत में सार्वजनिक हस्तियों, नेताओं की मूर्तियों का मामला विरासत से अधिक राजनीतिक होता है। मूर्तियों के जरिये खास तबकों और समुदायों को संदेश देने की कोशिश की जाती है। इसका इस्तेमाल प्राय: चुनावी फायदों के लिए किया जाता है। लेकिन सच तो यह है कि देश को मूर्तियों से ज्यादा सार्वजनिक सुविधाओं की जरूरत है। इसलिए टैक्सपेयर्स के पैसों का उपयोग किसी का महिमामंडन करने के बजाय सड़कों और पार्कों की हालत सुधारने में किया जाना चाहिए। इससे उन नेताओं के विचारों को फैलाने में ज्यादा मदद मिलेगी।
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